सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

शालिनीताई का स्कूल

इन्दौर के बाल निकेतन संघ की कर्ताधर्ता शालिनीताई मोघे का कल यानी ३० जून को निधन हो गया. मैंने पिछले साल स्कूल के छात्र सम्मलेन के मौके पर ये ब्लॉग लिखा था. थोड़ा ठीकठाक करके फिर प्रकाशित किया हैं                                                        बाल निकेतन संघ में नौवी से ग्यारहवीं कक्षा तक मैंने पढाई की थी.पिछले साल हमारे स्कूल के पुराने छात्रों का सम्मेलन था, तब वहाँ जाना हुआ. बड़ी अच्छी-अच्छी बाते हुई, इस स्कूल ने हम सबको बहुत कुछ सिखाया. सीखने से मेरा मतलब फिजिक्स, केमिस्ट्री या गणित नहीं हैं. ये शायद उस ज़माने में इंदौर का अकेला स्कूल था जो बाबा आम्टे, यदुनाथ थत्ते जैसे बड़े लोगो को लेक्चर देने बुलाता था. इन लोगों से जो सुनने मिला वो मन पर संस्कार छोड़ गया. सादा जीवन जीना चाहिए, पर्यावरण की रक्षा करना चाहिए. इसमें से ग्लोबल वार्मिंग तो अब फैशन में भी हैं, बहुत सारे दोस्त मुझ से नाराज होंगे पर सच तो ये हैं कि बाल निकेतन संघ अब फैशनेबल नहीं रहा.फैशनेबल से मेरा आशय हैं कि जहां आज की पीढ़ी पढ़ना चाहती हैं.
२४ साल यानी मेरी स्कूली पढ़ाई खत्म होने के बाद इंदौर काफी बदल गया हैं. बाल विनय मंदिर सरकारी स्कूल था पर एडमिशन मुश्किल से मिलता था. बाल निकेतन प्रायवेट स्कूल था, एडमिशन के लिए अच्छे नंबर के अलावा टेस्ट देना पड़ता था. इसके अलावा दयानंद और वैष्णव जैसे स्कूल थे जहाँ इन्दौर के मिडल या लोअर मिडिल क्लास परिवारों के बच्चे पढते थे. इन स्कूलों में पढाई हिन्दी और इंग्लिश दोनों मीडियम में होते थी. बड़े परिवारों के बच्चों का स्कूल था सेंट पॉल.डेली कॉलेज तो खैर बड़े-बड़े लोगो की पहुंच से बाहर था. इंदौर बदलने का संकेत इस बात से मिलना हैं कि मेरे जानने वालों में से अब कोई बच्चा बाल विनय, बाल निकेतन, दयानंद या वैष्णव में नहीं पढता हैं. ज्यादातर बच्चे अब उन स्कूलों में पढते हैं जिनका नाम २५ साल पहले किसी ने नहीं सुना था. बाल निकेतन की तरह ये नए स्कूल इंदौर की नयी पीढ़ी बनाने के लिए नहीं बल्कि सिर्फ धंधा करने के लिए खुले हैं. ये स्कूल धंधा भी कर रहे हीं और आज के ज़माने की जरूरत के हिसाब से डॉक्टर, इंजिनियर पैदा करने का काम बहुत अच्छे से कर रहे हैं.
 शालिनीताई ताई मोघे ९८ साल की उम्र तक स्कूल चलती रही है, इंदौर को उनकी याद पिछले साल जाकर आई तो नागरिक अभिनंदन हुआ. शालिनीताई गाँधीवादी विचारधारा को मानने वाली महिला हैं. उन्होंने इस स्कूल को को बड़ा किया. शिक्षा के क्षेत्र में काम के लिए उन्हें १९६८ मैंने यानी मेरे पैदा होने से पहले पदमश्री मिला था. पद्म पुरस्कार के बारे में कम से कम तब कोई रेकेटबाजी का आरोप नहीं लगाता था. शालिनीताई के पिता तात्या साहेब सरवटे ने बाल निकेतन की स्थापना की थी.शालिनीताई और उनके पति दादासाहेब ने उसे बहुत आगे बढ़ाया. दादासाहेब तो हमे भी अंगरेजी पढाया करते थे. शालिनीताई से उस दिन भीड़भाड़ में लंबी बात नहीं हो पायी, पर अखबार में उनका इंटरव्यू पढ़ा जिसमें उन्होंने कहा कि वो पब्लिक स्कूलों के कल्चर में बाल निकेतन को नहीं ढालना चाहतीं हैं. ये बहुत अच्छा ख्याल हैं, लेकिन मुझे दुख इस बात का हैं कि बाल निकेतन के मैदान छोड़ने या फैशनेबल ना होने का फायदा सिर्फ और सिर्फ धंधेबाज स्कूलों का हुआ हैं, नुकसान बाल निकेतन का भी नहीं हुआ हैं. इंदौर शहर जरूर घाटे में रहेगा. ये घाटा भी उनको समझ में आएगा जिन्होंने शहर को बदलते हुए देखा हैं.
शालिनी ताई को मेरी श्रद्धांजलि.

4 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

koshish jari rakho..saal baad bhi agar vapis blogging shuru kiya toh achcha hai...waise bhi aaj tumhara saal girha hai...badhai ho

बेनामी ने कहा…

wah! saal baad bhi agar vapis blogging shuru kiya ho toh achcha hai..chalo..mubaraq..waise bhi aaj tumhara sal girha hai..badhai ho..neeta

बेनामी ने कहा…

आप अपने रिपोर्टिंग के अनुभव को लिखा करें. यह काफी रोचक और बेहतर होगा.

Latika Goel ने कहा…

very nice Milind... I guess u shld write more OFTEN...