रविवार, 5 जनवरी 2014

ये किताब क्यों लिखी?


बहुत दिनों बाद मैंने अपने ब्लॉग में झांक कर देखा तो पता आखिरी ब्लॉग करीब सवा दो साल पहले लिखा था. वो ब्लॉग भी क्या था, भाषण था जिसे मैंने बाद में मैंने लिख डाला था. ब्लॉग तो नहीं लिखा पर इस बीच एक किताब लिख डाली. इसी किताब पर है ये ब्लॉग. किताब का नाम हैं " दलित करोड़पति , १५ प्रेरणादायक कहानियाँ".  किताब को पेंगुइन ने प्रकाशित किया हैं, मूल किताब हिंदी में हैं, इसका अंग्रेजी अनुवाद भी बाजार में आया हैं.

बहुत दोस्तों ने पूछा कि ये किताब क्यों लिखी? इसका जवाब  मेरे पिछले ब्लॉग से शुरू होता हैं.मैं हिंदी दिवस के कार्यक्रम में गया था, वहां यही सुनने मिला कि सरकार हिंदी के बारे में कुछ नहीं करती .मैंने तब कहा था कि हिंदी को अपनी हीन भावना को त्यागना होगा और अलग अलग विषयों पर कंटेंट तैयार करना पड़ेगा. मैंने जिन विषयों का जिक्र किया था उसमें बिजनेस, साइंस जैसे विषय शामिल थे.  तब मुझे लगा था कि सिर्फ भाषण देने से क्या फायदा, मुझे भी कुछ लिखना चाहिए.हिंदी में फिक्शन या कथा साहित्य तो काफी मौजूद हैं पर नॉन फिक्शन की विषय सूची  छोटी दिखाई पड़ती हैं.'दलित करोड़पति ' इसी दिशा में मेरा छोटा सा प्रयास हैं


ये किताब १५ ऐसे लोगों की कहानी हैं जिन्होंने अपने बूते पर करोड़ों का कारोबार खड़ा कर दिया. इस रास्ते में जाति एक बहुत बड़ी बाधा थी, जिसे पार करना मुश्किल था.अगर कोई आपका माल सिर्फ इसलिए ना ख़रीदे क्योंकि आप दलित हैं या फिर आपको अपना नाम बदलकर काम शुरू करना पड़े.ये कहानियां हमारे समाज का एक ऐसा चेहरा पेश करती हैं जो देश के हर कोने में एक जैसा हैं . क्या यूपी, क्या गुजरात ? क्या महाराष्ट्र या पंजाब ? हर राज्य में कहानी एक जैसी हैं, कानून के बाद भी जाति के आधार पर भेदभाव होता हैं. समाज अभी भी नहीं बदला हैं.

आप ये किताब पढ़े और बताए , तारीफ के बजाय कमजोरी बताए तो अच्छा रहेगा




3 टिप्‍पणियां:

Rajesh Kumar ने कहा…

पुस्तक लिखने के लिये आपको बधाई। जाति के हिसाब से समाज के नीचले पायदान पर जी रहे लोगों की स्थिति आज भी बेहद खराब है चाहे वह गांवों में हो या शहरो में। इसे मेरे दो जानने वालों की स्थिति से समझा जा सकता है। एक मेरे दोस्त हैं जो फिल्म-सीरियल के लेखक हैं। हमारे साथ काम कर चुके। वे जात-पात से दूर है। इसलिये वे या उनके परिवार में कई लोग अपने नाम से टाइटल हटा दिये। अब उनके नाम में जो बचा उस आधार पर लोगों ने उनकी जाति तय कर दी। लोग उनके नाम के अनुरूप उन्हें दलित समझने लगे। उन्हें इस बात का अहसास था लेकिन वे समरसता के तहत चुप रहते। बाद में मालूम चला कि वे जी ब्राह्ण हैं। ऐसा ही हुआ सामाजिक समरसता के पक्षधर पारस राम सिंह के साथ। उन्होने सिंह हटा दिया तो लोगों ने राम के आधार पर उनकी जाति तय कर दी। पारस भी जातपात का भेदभाव नहीं मानते। वे भी जो लोग कहते चुपचाप सुनते रहते और सामाजिक एकता की बात करते। बाद में लोगों को मालूम चला कि वे भी दलित समाज से नहीं है। इतना हीं नहीं समाज के जातीय दंश से बचने के लिये समाज के कमजोर लोगों ने समाज के प्रतिष्ठित टाइटिल को अपना लिये।

जात-पात के बंधन को दूर करने के लिये यह जरूरी है कि समाज का संपन्न वर्ग समाज के कमजोर वर्गो के उत्थान के लिये और समाज के कमजोर वर्ग समाज के संपन्न वर्ग के उत्थान के लिये काम करे। साभार व धन्यवाद।

जसवंत लोधी ने कहा…

शुभ लाभ।Seetamni. blogspot. in

Unknown ने कहा…

अगर कमी हो तो बताये ,,आपकी इस किताब से मुझे वो सब करने का फिर से मौका दिया ।। जिसे में दफ़ना चुका था ।। अपने हर उस काम उस सपने को दफन कर दिया ।। जब आपकी किताब 15 दलित करोड़पति पढ़ी थी ।।।।।woooo