सोमवार, 19 सितंबर 2016

ये बुखार चढ़ता हैं और फिर अगले हमले तक उतर जाता हैं

फ़ेसबुक और ट्विटर मेरी टाइम लाइन भरी पड़ी हैं । कोई कह रहा है कि १७ के बदले १७० मार दो। कोई मोदी को उनके ट्वीट याद दिला रहा हैं कि आपने पहले पाकिस्तान को लेकर क्या कहा था ? अब क्या करोगे ? टीवी, ट्विटर और फ़ेसबुक पर हर आतंकी हमले के बाद ये बुखार चढ़ता हैं और फिर अगले हमले तक उतर जाता हैं। इस बीच पाकिस्तान को जो करना है वो करता रहता है। ये गंभीर कूटनीतिक मसला हैं और इसे ट्विटर या फ़ेसबुक पर नहीं जीता जा सकता हैं। पाकिस्तान को सबक़ सिखाने का वक़्त आ गया हैं । नौ महीने पहले हमारे वायु सेना के स्टेशन पर हमला हुआ और कल थल सेना पर , अब क्या हम जल सेना पर हमले का इंतज़ार करेंगे । सबक़ सिखाना चाहिए , मगर ठंडे दिमाग़ से । और हाँ , ट्विटर , फ़ेस बुक और टीवी पर जो हो रहा हैं उसके लिए मैं भी उतना दोषी हूँ जितने आप ।

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

क्या राहुल के इकॉनोमिक्स ज्ञान को भी डाक टिकट के पीछे लिखा जा सकता है!

वित्त मंत्री पी चिदम्बरम के इस बयान की ज्यादा चर्चा हो नहीं पाई, बीबीसी को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी के इकॉनोमिक्स की जितनी समझ है उसे डाक टिकट के पीछे जितनी जगह होती है उसमें लिखा जा सकता है. कहने का मतलब ये था कि मोदी की समझ ज़ीरो है. उनकी बात सच हो सकती है, क्योंकि अभी भी मोदी ने कोई प्लान पेश नहीं किया है कि महँगाई कैसे कम होगी? नौकरियाँ कैसे बढ़ेंगीं? लेकिन इस ब्लॉग में चर्चा राहुल के इकॉनोमिक्स की होगी.

चिदम्बरम के इंटरव्यू के हफ्ते भर में दो ऐसी ख़बरें आईं जिसने राहुल की पॉलिसी पर सवाल खड़े कर दिए. सरकार ने ताबड़तोड़ रसोई गैस के सस्ते सिलेंडरों की संख्या सालाना नौ से बढ़ाकर बारह कर दिया. ये फैसला कांग्रेस महाधिवेशन में राहुल की अपील के बाद हुआ. दूसरी खबर थी कि पिछले साल यानी 2012-13 के जीडीपी के आंकड़े घट गए हैं. पहले हिसाब था कि इकॉनोमी 5 फीसदी की रफ़्तार से बढ़ी है, अब आंकड़ें हैं कि बढ़ने की रफ़्तार 4.5 फीसदी थी. आम आदमी पर इसका क्या असर पड़ा ये समझने के लिए एक और आंकड़ा जानना जरूरी है. 2011-12 में प्रति व्यक्ति आय 28 हजार 107 रुपए थी जो 2012-13 में बढ़कर 29 हजार 150 रुपए हुई यानी सालाना एक हजार से थोड़ी ज्यादा की बढोतरी. आमदनी जितनी बढ़ नहीं रही, उससे ज्यादा महंगाई बढ़ रही है.
फिर से चिदम्बरम के इंटरव्यू पर लौटते हैं. उनसे पूछा गया कि घटती आमदनी और बढ़ते दाम का जिम्मेदार कौन है? तो इसके जवाब में चिदम्बरम ने कहा कि 2008 में दुनिया भर में आई आर्थिक मंदी से निबटने के लिए सरकार को तीन दफे स्टिमुलस पैकेज देने पड़े. इससे सरकार का घाटा बढ़ा, हम आज तक इससे जूझ रहे हैं, लेकिन तब इसके अलावा कोई चारा नहीं था. इसी इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि मोदी की फिस्कल डेफिसिट और करंट अकाउंट डेफिसिट पर क्या सोच हैं किसी को नहीं पता.

फिस्कल डेफिसिट यानी सरकार की आमदनी और खर्च का फर्क. ये लगातार बढ़ रहा है. ये घाटा जब बढ़ता है तब महंगाई बढ़ती है क्योंकि सरकार इस घाटे को पूरा करने के लिए बाजार से पैसे या कर्ज उठाती है. बाजार का नियम है जब जिसकी डिमांड बढ़ती है तो उसके दाम भी बढ़ जाते हैं. पैसे पर भी यही नियम लागू होता है. सरकार के बाजार में आने से ब्याज दरें बढ़ जाती हैं. जिसके चलते कंपनियों को कर्ज उठाना महँगा पड़ता है और वो नया बिजनेस शुरू करने में हिचकती हैं. इससे नई नौकरी नहीं आ पाती जबकि हम जैसे लोगों की लोन की किस्तें बढ़ जाती हैं.

 पिछले पांच सालों में यही दुष्चक्र यूपीए को ले डूबा है. यूपीए ने इस दुष्चक्र को तोड़ने की कोशिश की थी जब पेट्रोल पर सब्सिडी देना करीब डेढ़ साल पहले बंद कर दिया. रसोई गैस के सस्ते सिलेंडर का कोटा नौ कर दिया. हर महीने डीजल के दाम 50-50 पैसे बढ़ाने का फैसला किया था. राहुल गांधी के सलाहकार जयराम रमेश ने कोई दो साल पहले कहा था कि सरकार हर साल पेट्रोलियम सब्सिडी पर करीब दो लाख करोड़ रुपए खर्च करती है जबकि इसका आधा पैसा गाँवों में खर्च होता है. उन्होंने कहा था कि डीजल सब्सिडी महंगी एसयूवी गाड़ी चलाने वालों को मिलती है जबकि एलपीजी का फायदा बहुत सारे ऐसे लोगों को मिलता है जो जिसके हक़दार नहीं हैं.  अभी हर सिलेंडर पर सरकार 762 रुपए सब्सिडी देती है. इसी सोच के तहत सब्सिडी सीधे बैंक खाते में जमा करने की योजना भी शुरू हुई. यानी ये 762 रुपए आपके खाते में होंगे और आप गैस वाले को पूरा पैसे दे देंगे. ये पैसे हर साल 9 सिलेंडरों तक मिलने थे और इसके बाद सिलेंडर खरीदने पर आपको बाजार भाव से करीब 1100 से 1200 रुपए देने पड़ते.

चुनाव जीतने के लिए राहुल गांधी ने महंगाई कम करने का फार्मूला पेश किया उसके नतीजे में सरकार ने ना सिर्फ सस्ते सिलेंडर सालाना बढ़ाकर 12 कर दिया बल्कि बैंक में सब्सिडी ट्रान्सफर की स्कीम भी फिलहाल रोक दी. इससे सरकार पर 5 हजार करोड़ रुपए का एक्सट्रा बोझ बढ़ जाएगा. चिदम्बरम फिस्कल डेफिसिट तो कहीं और से काट छांट करके मैनेज कर लेंगे, पर कांग्रेस फिर उसी रास्ते पर चल पड़ी है जिसमें लोगों की जिंदगी बेहतर बनाने के लिए उनकी आमदनी बढ़ाने पर जोर नहीं है, जोर है इस बात पर कि सरकार माई-बाप बनकर जनता को सब्सिडी के नाम पर भीख देती रहे.

चिदम्बरम अब क्या राहुल गांधी के लिए भी क्या वही बात कहेंगे जो उन्होंने मोदी के लिए कही थी कि इकॉनोमी की समझ डाक टिकट के पीछे जितनी जगह है उसमें लिखी जा सकती है.

रविवार, 5 जनवरी 2014

ये किताब क्यों लिखी?


बहुत दिनों बाद मैंने अपने ब्लॉग में झांक कर देखा तो पता आखिरी ब्लॉग करीब सवा दो साल पहले लिखा था. वो ब्लॉग भी क्या था, भाषण था जिसे मैंने बाद में मैंने लिख डाला था. ब्लॉग तो नहीं लिखा पर इस बीच एक किताब लिख डाली. इसी किताब पर है ये ब्लॉग. किताब का नाम हैं " दलित करोड़पति , १५ प्रेरणादायक कहानियाँ".  किताब को पेंगुइन ने प्रकाशित किया हैं, मूल किताब हिंदी में हैं, इसका अंग्रेजी अनुवाद भी बाजार में आया हैं.

बहुत दोस्तों ने पूछा कि ये किताब क्यों लिखी? इसका जवाब  मेरे पिछले ब्लॉग से शुरू होता हैं.मैं हिंदी दिवस के कार्यक्रम में गया था, वहां यही सुनने मिला कि सरकार हिंदी के बारे में कुछ नहीं करती .मैंने तब कहा था कि हिंदी को अपनी हीन भावना को त्यागना होगा और अलग अलग विषयों पर कंटेंट तैयार करना पड़ेगा. मैंने जिन विषयों का जिक्र किया था उसमें बिजनेस, साइंस जैसे विषय शामिल थे.  तब मुझे लगा था कि सिर्फ भाषण देने से क्या फायदा, मुझे भी कुछ लिखना चाहिए.हिंदी में फिक्शन या कथा साहित्य तो काफी मौजूद हैं पर नॉन फिक्शन की विषय सूची  छोटी दिखाई पड़ती हैं.'दलित करोड़पति ' इसी दिशा में मेरा छोटा सा प्रयास हैं


ये किताब १५ ऐसे लोगों की कहानी हैं जिन्होंने अपने बूते पर करोड़ों का कारोबार खड़ा कर दिया. इस रास्ते में जाति एक बहुत बड़ी बाधा थी, जिसे पार करना मुश्किल था.अगर कोई आपका माल सिर्फ इसलिए ना ख़रीदे क्योंकि आप दलित हैं या फिर आपको अपना नाम बदलकर काम शुरू करना पड़े.ये कहानियां हमारे समाज का एक ऐसा चेहरा पेश करती हैं जो देश के हर कोने में एक जैसा हैं . क्या यूपी, क्या गुजरात ? क्या महाराष्ट्र या पंजाब ? हर राज्य में कहानी एक जैसी हैं, कानून के बाद भी जाति के आधार पर भेदभाव होता हैं. समाज अभी भी नहीं बदला हैं.

आप ये किताब पढ़े और बताए , तारीफ के बजाय कमजोरी बताए तो अच्छा रहेगा




बुधवार, 14 सितंबर 2011

अब ये हिंदी का श्राद्ध पक्ष नहीं , उत्सव हैं


आज श्राद्ध पक्ष का तीसरा दिन हैं और आज हिंदी दिन भी हैं. श्राद्ध पक्ष का जिक्र करने का कारण हिंदी दिवस से जुडी मेरी यादें हैं. करीब १९ साल पहले मैंने मुंबई के नवभारत टाइम्स में काम करना शुरू किया था तोइन १५ दिनों में सरकारी विभागों और सरकारी कंपनियों की विज्ञाप्ति का ढेर लग जाता था. हर विभाग में होड लगी रहती थी कि जैसे तैसे खबर छप जाए कि हिंदी दिवस मन गया. खबर की कतरन शायद किसी फाइल में लग जाती होगी और फिर ये लोग साल भर के लिए हिंदी को भूल जाते थे. हम मजाक में कहते थे कि हिंदी का श्राद्ध हो गया,अब अगले साल याद करेंगे. बाकी दिन यही विभाग हिंदी अखबारों को बड़े दोयम दर्जे का मानते थे और हिंदी प्रदेशों से आने वाले ज्यादातर आईएस भी हिंदी अखबारों के रिपोर्टर से बात तक करने में कतराते थे, खबर देना तो दूर की बात हुई.

मुझे नहीं मालूम कि मुंबई में हिंदी पत्रकारों को क्या अब भी इसी तरह से संघर्ष करना पड़ता हैं, लेकिन पूरे देश की बात करें तो आज हिंदी किसी सरकारी दिन की मोहताज नहीं हैं. दैनिक भास्कर अखबार चलाने वाली कंपनी सरकारी नहीं हैं और आज वो बड़े गर्व से हिंदी दिवस पर ये आयोजन कर रही हैं. हालांकि मुझे लगता हैं कि हिंदी दिवस तो हर रोज हैं. इस देश में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले अखबार हिंदी में निकलते हैं. सबसे ज्यादा देखे जाने वाले खबरों और मनोरंजन के चैनल हिंदी में हैं. और तो और पंडित लोग कितनी भी निंदा करें बोलिवुड के बड़े स्टार भले अपने डायलाग नागरी के बजाय रोमन में पढ़ते हो लेकिन हैं तो वो भी हिंदी हैं जब हर जगह हिंदी छाई हुई हैं तो एक दिन या पखवाड़ा मनाने में कहीं न कहीं हमारी हीन भावना भी झलकती हैं.

हम अपने आपको अंग्रेजी के मुकाबले हीन समझते आये हैं, मैं फिर २० साल पुरानी बात पर लौटुंगा. जब देश में आर्थिक नीतियों में बड़ा बदलाव १९९१ में हुआ तो बहुत डर था कि अंग्रेजी छा जाएगी और हिंदी का कोई भविष्य नहीं होगा. अब २०११ के इंडियन रीडरशिप सर्वे के मुताबिक अगर आप टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, हिंदू और टेलीग्राफ की पाठक संख्या जो ले तो ये अकेले दैनिक भास्कर के एक करोड़ ४० लाख पाठकों के बराबर बैठती हैं. आप कहते हैं कि हिंदी में पाठक तो अंग्रेजी से हमेशा ज्यादा रहेंगे, पर पैसा ज्यादा नहीं हैं. मेरे पास चूंकि सिर्फ लिस्टेड कम्पनियों के आंकड़े मौजूद हैं इसलिए दैनिक भास्कर और जागरण का जिक्र करना चाहूँगा, इन दोनों कंपनियों का सालाना मुनाफा अंग्रेजी अखबार छापने वाली हिंदुस्तान टाइम्स की कंपनी से ज्यादा हैं. भास्कर का मुनाफा २६७ करोड रुपये था, जागरण का २०५ करोड़ रुपये और हिंदुस्तान टाइम्स का १७७ करोड़ रुपये.
तो साहब, पाठक भी हैं, दर्शक भी हैं, और तो और पैसे भी हैं. फिर हम हीन कैसे हुए? मुझे लगता हैं कि हीनता का कारण हैं एलीट क्लास में हमारे प्रभाव की कमी, प्रभाव की कमी को हम उस क्लास का पूर्वाग्रह मानते हैं. ये काफी तक सच हो सकता हैं, लेकिन हमे अपने अंदर की कमी को भी पहचाना होगा वो कमी ज्यादातर विषयों पर हमारे अधिकार की कमी. हम राजनीति पर अधिकार रखने वाले पत्रकार तो पैदा कर पाए हैं ,एक हद तक खेल और सिनेमा पर भी, लेकिन व्यापार, साइंस,हे़ल्थ, टेक्नोलॉजी जैसे अनेक विषय हमारे दायरे से बाहर हैं. हमे लगता हैं कि ये विषय हमारे टाइप के नहीं हैं और हम इन्हें किनारे छोडकर आगे बढ़ जाते हैं. ये टाइप तयकर के हम अपने पाठक और दर्शक की समझ का अपमान करते हैं. सच तो ये हैं कि हम इसे सरल भाषा में समझाने की जेहमत उठाना नहीं चाहते. ये हीन भावना तभी खत्म होगी जब हमारा प्रयास सिर्फ हिंदी मीडिया में सबसे बेहतर होने के बजाय सभी भाषाओं के मीडिया में बेहतर होने का होगा. हिंदी दिवस पर दैनिक भास्कर के आयोजन में मेरे विचार)

रविवार, 26 जून 2011

तब महंगाई पर आंदोलन करने वाली थी सोनिया जी,अब...?



आम आदमी की रोजमर्रा जरूरत की चीजों के दाम आसमान को छु रहे हैं. पेट्रोल, डीजल,रसोई गैस और किरासिन के दाम लगातार बढाये जा रहे हैंआम आदमी की जिदंगी महंगाई और भ्रष्टाचार ने बहुत मुश्किल कर दी हैं.ये बहुत बड़ा चेलेंज हैं. हमें केंद्र सरकार के खिलाफ आंदोलन करना पड़ेगा
                                              -कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी

       (  अक्टूबर 2000 को छिंदवाडा के कांग्रेस भवन का उद्घाटन समारोह में भाषण)


सोनिया गांधी का ये बयान आज उनकी यूपीए सरकार पर सटीक बैठता हैं, लेकिन उन्होंने ये बयान ठीक 11 साल पहले  बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार के लिए दिया था. 11 साल में कुछ भी नहीं बदला, बदला हैं तो सिर्फ पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस और किरासिन का भाव.

फिर 2004 में लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने एक चार्जशीट पेश की थी, उसमें लिखा था –


 “ एनडीए इकोनोमी के बारे में बड़े-बड़े दावे करता हैं,फिर भी देश की बड़ी आबादी रोज भूखी सोती हैं. दाम अभूतपूर्व स्तर को छु रहे हैं. 1994 में एक लीटर डीजल 7 रुपये 80 पैसे में मिलता था और 2004 में 20 रुपये 53 पैसे में ,पेट्रोल 11 रुपये 75 पैसे में एक लीटर मिलता था और 2004 में 33 रुपये 70 पैसे का. 1994 से 2004 तक रसोई गैस के दाम दोगुना हो गए हैं”.


 चार्जशीट में आगे लिखा था कि “इंडिया सिर्फ एनडीए के लिए शाइन कर रहा हैं 21वीं सदी कांग्रेस पार्टी की हैं. देश की जनता ईमानदार और काम करने वाली सरकार चाहती हैं. कांग्रेस देश को ऐसी सरकार देगी”.


तो साहब, देश में सात साल से कांग्रेस की ‘ईमानदार और काम करने वाली सरकार’ हैं. इस सरकार के राज में डीजल 20 रुपये से बढ़कर 41 रुपये कुछ पैसे हो गया हैं और पेट्रोल 33 रुपये से बढ़कर 69 रुपये कुछ पैसे हो गया हैं. ये दिल्ली के रेट हैं, बाकी देश में और महंगा हैं. दाम लगभग दो गुना हो गए हैं. सरकार की दलील हैं कि 2004 में कच्चे तेल का दाम प्रति बैरल 36 डॉलर था, वो अब 110 डॉलर के आसपास हैं यानी लगभग तीन गुना. फिर भी देश में दाम दो गुना ही बढ़े और ये दाम बढाकर भी सरकार घाटे हैं.



सवाल ये हैं कि क्या ये गणित सोनिया गांधी या कांग्रेस पार्टी को चुनाव से पहले नहीं पता था? बिलकुल पता होगा, ना सिर्फ कांग्रेस को बल्कि बीजेपी को भी, पर वोट पाने के लिए महंगाई का रोना रोने में क्या बुराई हैं. बीजेपी भी अब उसी तरह से रो रही हैं जैसे कांग्रेस पार्टी रोया करती थी विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज का बयान वैसा ही हैं जैसे सोनिया गांधी ने ११ साल पहले दिया था. सुषमा स्वराज ने ट्विट्टर पर लिखा हैं – “ पेट्रोलियम पदार्थों के दाम दसवीं बार बढ़ाये गए हैं, कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ का नारा देकर ये सरकार बनीं और आम आदमी को क्या मिला.आम आदमी की मुश्किलों के प्रति ये सरकार संवेदनशील नहीं हैं” 


अब कांग्रेस का बयान देख लीजिए, पार्टी महासचिव जनार्दन दिवेदी ने कहा- “ कई बार सरकार को कड़े फैसले लेने पड़ते हैं,डीजल की कीमत बढ़ने से हर किसी को मुश्किल होगी,पर आप सारे तथ्य देखेंगे तो समझ जाएंगे कि दाम बढ़ाने के अलावा कोई चारा नहीं था”. ये बयान तब के पीएम अटल बिहारी वाजपेयी के करीब 12 साल पुराने बयान से मिलता जुलता हैं, उन्होंने एनडीए की सरकार 1999 में फिर बनने पर कहा था-“ हमें कड़े कदम उठाने पड़ेंगे. डीजल के बढ़े दाम वापस नहीं हो सकते. इससे आम आदमी पर बोझ पड़ेगा, लेकिन कोई चारा नहीं था”.

कांग्रेस और बीजेपी के पुराने बयान खोजने में काफी मेहनत करना पड़ी, सिर्फ ये साबित करने के लिए की सरकार किसी की भी हो कम से कम पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतें काबू करने का प्लान किसी पार्टी के पास नहीं हैं. फिर भी इस पर पॉलिटिक्स उसी तरह से होती हैं, जैसे पिछली बार हुई थी.  हर पार्टी जब सरकार में होती हैं तब उसे याद रहता हैं कि देश की जरूरत का 80 फीसदी कच्चा तेल बाहर से आता हैं और उसकी कीमत सरकार घटा-बढ़ा नहीं सकती. जब दुनिया के बाजार में दाम बढ़ेंगे तब देश में भी बढ़ेंगे. सरकार से हटते ही कांग्रेस और बीजेपी दोनों ये बात भूल जाते हैं.