बुधवार, 14 सितंबर 2011

अब ये हिंदी का श्राद्ध पक्ष नहीं , उत्सव हैं


आज श्राद्ध पक्ष का तीसरा दिन हैं और आज हिंदी दिन भी हैं. श्राद्ध पक्ष का जिक्र करने का कारण हिंदी दिवस से जुडी मेरी यादें हैं. करीब १९ साल पहले मैंने मुंबई के नवभारत टाइम्स में काम करना शुरू किया था तोइन १५ दिनों में सरकारी विभागों और सरकारी कंपनियों की विज्ञाप्ति का ढेर लग जाता था. हर विभाग में होड लगी रहती थी कि जैसे तैसे खबर छप जाए कि हिंदी दिवस मन गया. खबर की कतरन शायद किसी फाइल में लग जाती होगी और फिर ये लोग साल भर के लिए हिंदी को भूल जाते थे. हम मजाक में कहते थे कि हिंदी का श्राद्ध हो गया,अब अगले साल याद करेंगे. बाकी दिन यही विभाग हिंदी अखबारों को बड़े दोयम दर्जे का मानते थे और हिंदी प्रदेशों से आने वाले ज्यादातर आईएस भी हिंदी अखबारों के रिपोर्टर से बात तक करने में कतराते थे, खबर देना तो दूर की बात हुई.

मुझे नहीं मालूम कि मुंबई में हिंदी पत्रकारों को क्या अब भी इसी तरह से संघर्ष करना पड़ता हैं, लेकिन पूरे देश की बात करें तो आज हिंदी किसी सरकारी दिन की मोहताज नहीं हैं. दैनिक भास्कर अखबार चलाने वाली कंपनी सरकारी नहीं हैं और आज वो बड़े गर्व से हिंदी दिवस पर ये आयोजन कर रही हैं. हालांकि मुझे लगता हैं कि हिंदी दिवस तो हर रोज हैं. इस देश में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले अखबार हिंदी में निकलते हैं. सबसे ज्यादा देखे जाने वाले खबरों और मनोरंजन के चैनल हिंदी में हैं. और तो और पंडित लोग कितनी भी निंदा करें बोलिवुड के बड़े स्टार भले अपने डायलाग नागरी के बजाय रोमन में पढ़ते हो लेकिन हैं तो वो भी हिंदी हैं जब हर जगह हिंदी छाई हुई हैं तो एक दिन या पखवाड़ा मनाने में कहीं न कहीं हमारी हीन भावना भी झलकती हैं.

हम अपने आपको अंग्रेजी के मुकाबले हीन समझते आये हैं, मैं फिर २० साल पुरानी बात पर लौटुंगा. जब देश में आर्थिक नीतियों में बड़ा बदलाव १९९१ में हुआ तो बहुत डर था कि अंग्रेजी छा जाएगी और हिंदी का कोई भविष्य नहीं होगा. अब २०११ के इंडियन रीडरशिप सर्वे के मुताबिक अगर आप टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, हिंदू और टेलीग्राफ की पाठक संख्या जो ले तो ये अकेले दैनिक भास्कर के एक करोड़ ४० लाख पाठकों के बराबर बैठती हैं. आप कहते हैं कि हिंदी में पाठक तो अंग्रेजी से हमेशा ज्यादा रहेंगे, पर पैसा ज्यादा नहीं हैं. मेरे पास चूंकि सिर्फ लिस्टेड कम्पनियों के आंकड़े मौजूद हैं इसलिए दैनिक भास्कर और जागरण का जिक्र करना चाहूँगा, इन दोनों कंपनियों का सालाना मुनाफा अंग्रेजी अखबार छापने वाली हिंदुस्तान टाइम्स की कंपनी से ज्यादा हैं. भास्कर का मुनाफा २६७ करोड रुपये था, जागरण का २०५ करोड़ रुपये और हिंदुस्तान टाइम्स का १७७ करोड़ रुपये.
तो साहब, पाठक भी हैं, दर्शक भी हैं, और तो और पैसे भी हैं. फिर हम हीन कैसे हुए? मुझे लगता हैं कि हीनता का कारण हैं एलीट क्लास में हमारे प्रभाव की कमी, प्रभाव की कमी को हम उस क्लास का पूर्वाग्रह मानते हैं. ये काफी तक सच हो सकता हैं, लेकिन हमे अपने अंदर की कमी को भी पहचाना होगा वो कमी ज्यादातर विषयों पर हमारे अधिकार की कमी. हम राजनीति पर अधिकार रखने वाले पत्रकार तो पैदा कर पाए हैं ,एक हद तक खेल और सिनेमा पर भी, लेकिन व्यापार, साइंस,हे़ल्थ, टेक्नोलॉजी जैसे अनेक विषय हमारे दायरे से बाहर हैं. हमे लगता हैं कि ये विषय हमारे टाइप के नहीं हैं और हम इन्हें किनारे छोडकर आगे बढ़ जाते हैं. ये टाइप तयकर के हम अपने पाठक और दर्शक की समझ का अपमान करते हैं. सच तो ये हैं कि हम इसे सरल भाषा में समझाने की जेहमत उठाना नहीं चाहते. ये हीन भावना तभी खत्म होगी जब हमारा प्रयास सिर्फ हिंदी मीडिया में सबसे बेहतर होने के बजाय सभी भाषाओं के मीडिया में बेहतर होने का होगा. हिंदी दिवस पर दैनिक भास्कर के आयोजन में मेरे विचार)

रविवार, 26 जून 2011

तब महंगाई पर आंदोलन करने वाली थी सोनिया जी,अब...?



आम आदमी की रोजमर्रा जरूरत की चीजों के दाम आसमान को छु रहे हैं. पेट्रोल, डीजल,रसोई गैस और किरासिन के दाम लगातार बढाये जा रहे हैंआम आदमी की जिदंगी महंगाई और भ्रष्टाचार ने बहुत मुश्किल कर दी हैं.ये बहुत बड़ा चेलेंज हैं. हमें केंद्र सरकार के खिलाफ आंदोलन करना पड़ेगा
                                              -कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी

       (  अक्टूबर 2000 को छिंदवाडा के कांग्रेस भवन का उद्घाटन समारोह में भाषण)


सोनिया गांधी का ये बयान आज उनकी यूपीए सरकार पर सटीक बैठता हैं, लेकिन उन्होंने ये बयान ठीक 11 साल पहले  बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार के लिए दिया था. 11 साल में कुछ भी नहीं बदला, बदला हैं तो सिर्फ पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस और किरासिन का भाव.

फिर 2004 में लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने एक चार्जशीट पेश की थी, उसमें लिखा था –


 “ एनडीए इकोनोमी के बारे में बड़े-बड़े दावे करता हैं,फिर भी देश की बड़ी आबादी रोज भूखी सोती हैं. दाम अभूतपूर्व स्तर को छु रहे हैं. 1994 में एक लीटर डीजल 7 रुपये 80 पैसे में मिलता था और 2004 में 20 रुपये 53 पैसे में ,पेट्रोल 11 रुपये 75 पैसे में एक लीटर मिलता था और 2004 में 33 रुपये 70 पैसे का. 1994 से 2004 तक रसोई गैस के दाम दोगुना हो गए हैं”.


 चार्जशीट में आगे लिखा था कि “इंडिया सिर्फ एनडीए के लिए शाइन कर रहा हैं 21वीं सदी कांग्रेस पार्टी की हैं. देश की जनता ईमानदार और काम करने वाली सरकार चाहती हैं. कांग्रेस देश को ऐसी सरकार देगी”.


तो साहब, देश में सात साल से कांग्रेस की ‘ईमानदार और काम करने वाली सरकार’ हैं. इस सरकार के राज में डीजल 20 रुपये से बढ़कर 41 रुपये कुछ पैसे हो गया हैं और पेट्रोल 33 रुपये से बढ़कर 69 रुपये कुछ पैसे हो गया हैं. ये दिल्ली के रेट हैं, बाकी देश में और महंगा हैं. दाम लगभग दो गुना हो गए हैं. सरकार की दलील हैं कि 2004 में कच्चे तेल का दाम प्रति बैरल 36 डॉलर था, वो अब 110 डॉलर के आसपास हैं यानी लगभग तीन गुना. फिर भी देश में दाम दो गुना ही बढ़े और ये दाम बढाकर भी सरकार घाटे हैं.



सवाल ये हैं कि क्या ये गणित सोनिया गांधी या कांग्रेस पार्टी को चुनाव से पहले नहीं पता था? बिलकुल पता होगा, ना सिर्फ कांग्रेस को बल्कि बीजेपी को भी, पर वोट पाने के लिए महंगाई का रोना रोने में क्या बुराई हैं. बीजेपी भी अब उसी तरह से रो रही हैं जैसे कांग्रेस पार्टी रोया करती थी विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज का बयान वैसा ही हैं जैसे सोनिया गांधी ने ११ साल पहले दिया था. सुषमा स्वराज ने ट्विट्टर पर लिखा हैं – “ पेट्रोलियम पदार्थों के दाम दसवीं बार बढ़ाये गए हैं, कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ का नारा देकर ये सरकार बनीं और आम आदमी को क्या मिला.आम आदमी की मुश्किलों के प्रति ये सरकार संवेदनशील नहीं हैं” 


अब कांग्रेस का बयान देख लीजिए, पार्टी महासचिव जनार्दन दिवेदी ने कहा- “ कई बार सरकार को कड़े फैसले लेने पड़ते हैं,डीजल की कीमत बढ़ने से हर किसी को मुश्किल होगी,पर आप सारे तथ्य देखेंगे तो समझ जाएंगे कि दाम बढ़ाने के अलावा कोई चारा नहीं था”. ये बयान तब के पीएम अटल बिहारी वाजपेयी के करीब 12 साल पुराने बयान से मिलता जुलता हैं, उन्होंने एनडीए की सरकार 1999 में फिर बनने पर कहा था-“ हमें कड़े कदम उठाने पड़ेंगे. डीजल के बढ़े दाम वापस नहीं हो सकते. इससे आम आदमी पर बोझ पड़ेगा, लेकिन कोई चारा नहीं था”.

कांग्रेस और बीजेपी के पुराने बयान खोजने में काफी मेहनत करना पड़ी, सिर्फ ये साबित करने के लिए की सरकार किसी की भी हो कम से कम पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतें काबू करने का प्लान किसी पार्टी के पास नहीं हैं. फिर भी इस पर पॉलिटिक्स उसी तरह से होती हैं, जैसे पिछली बार हुई थी.  हर पार्टी जब सरकार में होती हैं तब उसे याद रहता हैं कि देश की जरूरत का 80 फीसदी कच्चा तेल बाहर से आता हैं और उसकी कीमत सरकार घटा-बढ़ा नहीं सकती. जब दुनिया के बाजार में दाम बढ़ेंगे तब देश में भी बढ़ेंगे. सरकार से हटते ही कांग्रेस और बीजेपी दोनों ये बात भूल जाते हैं.