रविवार, 25 मई 2008

ये भी थेरपी हैं

ब्लोगिंग में अभी नया हूँ, इसीलिए दो पोस्ट सिर्फ़ शीर्षक के साथ छप गए अब भी सोच ही रहा हूँ की क्या लिखा जाए? बाबा को ब्लॉग पर मिले रेस्पोंस से मैं अभिभूत हूँ। ज्यादातर मित्रों ने लिखने पर हिम्मत की दाद दी, लेकिन इसमे मेरा भी बड़ा स्वार्थ था और हैं, जैसा की नीता ने लिखा हैं की ब्लोगिंग एक थेरेपी की तरह हैं और इससे मुश्किल भरे इस वक्त में मेरा मन भी बहुत हल्का हो गया हैं।
१५ दिन तक शोक और श्राधकर्म के बाद मैं फिर उसी भागदौड़ में शामिल हो रहा हूँ, जिसे हम दिल्ली मुम्बई में जिन्दगी कहते हैं.जिन्दगी कुछ बदल सी गई थी पर उस बारे में फिर कभी। मेरा पूरा परिवार अब बेहतर हैं और सबका आभार मानते हैं।
इंदौर
२५ मई 2008

5 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

मिलिंद जी,
जब से आपको जाना है देखा है कि आपने हमेशा मुश्किलों को हराया है ,मुझे लगता है जीने की इच्छा आपकी सबसे बड़ी ताकत है इसीलिये अपनी लंबी बीमारी ,काम का दबाव और निजी मुश्किलों में भी आप टूटे नहीं ।
उस मोटरसाइकिलवाले को आप ही क्षमा कर सकते थे । क्षमा कर पाना और मुश्किल वक्त में संयम रखना आपसे सीखने की कोशिश अब भी कर रहे हैं .आप हमेशा कहते थे वक्त हर जख्म को भर देता है । मेरी प्रार्थना है आपको सारी मुश्किलों में इसी तरह दोस्तों का साथ और अपनापन मिलता रहे और आपकी मां हमेशा आपके साथ रहें क्योंकि इस वक्त सिर्फ वो ही आपको समझ सकती हैं।

आर. अनुराधा ने कहा…

पिछली पोस्ट पर रजनीकांत ने लिखा- "इस तरह के हालात से जब भी गुजरें तुरंत दफ्तर के सहकर्मियों , कम से कम आसपास के लोगों को जरूर सूचित करें. हो सकता है किसी न किसी के जरिये हमारी मुश्किल हल हो जाए...उन लोगों से संकोच क्या जिनके बीच आप अपना आधे से ज्यादा दिन बिताते हैं....और अगर इस साझा प्रयास से हम किसी एक को भी बचा लेते हैं तो शायद ये प्रयास सार्थक होगा।"
मैं भी किसी वक्त तुमसे यह कहना चाहती थी। और यह किसी से मांगना या किसी का अहसान लेना नहीं बल्कि साझा करना होता है जो दुनिया के किसी भी कोने में बसा इंसान सहज भाव से करता है और जवाब में कोई भी इसे उतने ही सहज भाव से करने की भरसक कोशिश करता है। इसे ही नेटवर्किंग कहा जाता है। और, लगे हाथ कह ही दूं, महिलाएं इसमें महारथ रखती हैं, हा-हा। महानगर लाख बेदिल हों, इसमें रहने वाले मित्र जरूर दिल रखते हैं। सिस्टम नाकारा हो तो भी नेटवर्किंग काम आती है। हम सभी इस नेटवर्क को मजबूत करें और आपसी भलाई में इसको खूब इस्तेमाल करें।

बेनामी ने कहा…

सर, बाबा के निधन के बाद जब भी दफ्तर में आपकी चर्चा होती थी मन बड़ा दुखी हो जाता था—अस्थि जमा करने के दिन जब लोधी रोड गया तो आपको देखकर आपके दिल की हालत का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं था—जब भी आपका खयाल आता आंखों के सामने वही हताश चेहरा घूम जाता था--सोचता था कि शायद आप काफी दिनों तक सहज नहीं हो पाएंगे—हो सकता है काफी वक्त तक आफिस ना आएं। लेकिन वक्त से लड़ने की जो हिम्मत आप के अंदर है—मैंने आज तक किसी में नहीं देखी। आप फिर पुरने मिलिंद सर की तरह आफिस आए---मैं नहीं जानता आप इस दुखद घटना को भूले हैं या नहीं—शायद आप कभी भूल भी नहीं पाएं—लेकिन वक्त के साथ इंसान को कैसे खुद को संभालना चाहिए—आज आप इसकी एक मिसाल हैं---मैं तो आपके सामने बच्चा हूं—आपने बहुत दुनिया देखी है---सर मेरे पिताजी गंभीर बीमारी से जूझ रहे हैं—डायबीटिज की वजह से उनकी आंख में प्रॉब्लम है—फिर पता चला कि उनकी किडनी भी डैमेज हो रही है—करीब एक साल से मैं अस्पताल के चक्कर लगा रहा हूं—हर दो महीने बाद पिताजी को दिल्ली आना पड़ता है वो भी बहुत निराश हो चुके हैं---हमेशा परेशान रहता हूं---मन में बुरे खयाल भी आते हैं---लेकिन आपकी हिम्मत देख मुझे नई शक्ति मिली है—इंसान को हालात का सामना कैसे करना चाहिए ये सीखा है मैंने।
जिंदगी जीने के आपके जज्बे को सलाम करता हूं।

आपका रवींद्रनाथ

Manu Panwar ने कहा…

मिलिंद सर,
परिवार में किसी बड़े-बुजुर्ग का सिर से साया उठना ऐसी आपदा है जब आपको कुछ नहीं सूझता। जिन हालातों में आपके बाबा की जिंदगी गई है,उसकी कल्पनाभर ही किसी भी संवेदनशील इंसान को झकझोर सकती है। आप तो बेटे हैं। लेकिन ऐसे दुखद मौके पर भी आपका हौसला और सूझबूझ दाद के काबिल है। दूसरों के लिए एक मिसाल भी है। दरअसल दिल्ली हो या मुंबई,ये महानगर गुमशुदा ज़िंदगियों के महाद्वीप की तरह हैं। ये गुमशुदगी हर तरह से और हर स्तर पर दिखती है। दफ्तर में,घर और पड़ोस में, सड़क पर,बाजार में। हर कोई अपने में इतना गुम है कि उसे दूसरे की खबर तक नहीं। एक ही कार्यस्थल का हिस्सा होने के बावजूद खुद मुझे भी आपके पिता के निधन के बारे में काफी देर बाद पता चला। एसएमएस की सोची लेकिन तब ये उचित नहीं लगा। कई दिनों बाद अब आपके ब्लॉग पर पहुंचा तो लगा कि लिखा जाना चाहिए।
मुझे लगता है महानगर हमारी छाती पर समृद्धि का तमगा तो फहराते हैं,लेकिन बदले में हमारी नसों से संवेदनशीलता को सोखकर बड़ी कीमत भी वसूल लेते हैं। आपके बाबा की जिन हालातों में मृत्यु हुई उसके पीछे भी कहीं न कहीं महानगरों की निष्ठुरता भी रही है। शायद इंदौर या दूसरा कोई छोटा शहर किसी सड़क हादसे पर इतना बेदर्द,इतना बेपरवाह नहीं होता।
बहरहाल,आपके जज़्बे को सलाम। दुख से उबरने की आपकी कोशिश आपकी मजबूती को दर्शाती है। इस दुखद हादसे के बाद आपकी सलाह निश्चित ही महानगरों में रहने वाले कई दूसरे लोगों के लिए मूल्यवान होगी, ऐसी उम्मीद है। आमीन।

मनु पंवार

Sahil Chhabra ने कहा…

sir u r a great human being.